मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

विषय-तकनीक समकालीन तो कला समकालीन: रवींद्र कुमार दास



चित्रकार रविन्द्र दास से विनीत उत्पल की बात-चीत -


कला सृजन करते रविन्द्र दास
आधुनिक भारतीय कला का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। समाज की विचारधारा एवं मनुष्य की भावनाओं को चित्रकार चित्र के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं। बिहार के वरिष्ठ कलाकार हैं, रवींद्र कुमार दास। वे आधुनिक शैली के चित्रकार हैं। इनकी कलाकृतियों पर मिथिला की लोक संस्कृति की सहजता एवं आधुनिकता की चकाचौंध, दोनों का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। कई एकल एवं सामूहिक प्रदर्शनियों में इनकी कलाकृतियां प्रदर्शित हो चुकी हैं। उनसे युवा कवि एवं पत्रकार विनीत उत्पल की बातचीत-
शुरुआती दौर का सफर कैसा रहा?


मिथिलांचल में मेरा जन्म हुआ। स्कूली शिक्षा के बाद मैं पटना आ गया। पिताजी के काफी मान-मनव्वल के बाद पटना आर्ट कॉलेज में दाखिला लिया। अध्ययन के दौरान ही मैंने फोटोग्राफी करनी शुरू कर दी, जिसकी आमदनी से मैं पेंटिग किया करता था। शुरुआत में जलरंग में चित्रण किया, जिसके विषय प्रेम एवं प्रकृति थे। फिर, कुछ देवी-देवताओं के चित्र भी बनाये। कृष्ण को एक सामान्य मनुष्य के तौर पर चित्रित किया। भैंस के साथ एक चरवाहा बांसुरी बजा रहा था। उसे देखकर मुझे लगा कि यही है कृष्ण का आधुनिक रूप। बिहार में हुए नरसंहारों पर कविता प्रदर्शनी का आयोजन पटना के मौर्यलोक के नुक्कड़ पर आयोजित किया था। इसमें मेरे साथ बिहार के चर्चित कलाकार सुबोध गुप्ता, नरेंद्र पाल सिंह आदि कई कलाकार भी थे।

रविन्द्र दास की कृति 


क्या वहां सांस्कृतिक माहौल था?

हां, उन दिनों था। कला के सभी विधा के लोगों में सांस्कृतिक संप्रेषण था। इप्टा, जनसंस्कृति मंच, कला संगम जैसी संस्थाएं कवियों, कलाकारों एवं नाटककारों को एक सूत्र में बांधने का काम कर रही थीं। उन्हीं दिनों नूर फातिमा, तनवीर अख्तर, अपूर्वानंद, संजय उपाध्याय प्रभृत संस्कृतिकर्मियों से मेरा परिचय हुआ। 'जनमत" के संपादक रामजी राय के साथ भी कला पर विचार-विमर्श हुआ करता था। पटना में कोई कला दीर्घा तो थी नहीं, बावजूद इसके हमलोगों ने एक नुक्कड़ को नंदलाल बसु कला दीर्घा नाम से चर्चित कर दिया था।


दिल्ली में सफर कैसा रहा?

1990 के आसपास जो लोग राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए पटना से दिल्ली या मुंबई आए, वही लोग कहीं-न-कहीं मिल जाते थे। यहां बड़ौदा, भारत भवन एवं शांति निकेतन के कलाकार अलग-अलग समूहों में बंटे थे। हम लोगों ने सबसे संवाद बनाया। चूंकि बिहार में राज्य ललित कला अकादमी नहीं थी, कोई रजा जैसा स्थापित कलाकार या अशोक वाजपेयी जैसा कला मर्मज्ञ अधिकारी भी नहीं था, इसलिए बिहार के कलाकारों को अपनी जगह बनाने में समय लगा। बिहार के कलाकारों ने मिलकर समूह प्रदर्शनी आयोजित करना शुरू किया।


आप आधुनिक कलाकार हैं लेकिन मिथिला चित्रकला से आपका जुड़ाव कैसे है?

मेरा जन्म मिथिला में हुआ तथा मेरी पत्नी मिथिला शैली के चित्रों से प्रेरणा लेकर चित्र बनाती है। मैंने उनसे जुड़कर कई राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित चित्रकारों से साक्षात्कार लिया, उनके चित्रों को जाना तो मिथिला चित्र मुझे भी अच्छे लगने लगे। इन चित्रों की रेखाएं पिकासो के रेखांकन से मुकाबला करती हैं। मैंने मिथिला चित्रों के मूल विषय प्रेम से प्रेरणा ली हैं एवं इनके रेखांकन की सहजता भी अपने चित्रों में उकेरने की कोशिश की है।


बिहार के कलाकारों की राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या स्थिति है?

बिहार हीं नहीं, पूरे उत्तर भारत खासकर हिन्दी प्रदेशों के कलाकारों में पटना एक नया कला केंद्र बन कर उभर रहा है। खासकर सुबोध गुप्ता के स्टार कलाकार बन जाने के बाद लोगों में बिहार के कलाकारों के बारे में धारणा बदली है। राजेश राम, सांभवी सिंह आदि ऐसे कलाकार हैं, जिनकी कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिल चुकी है। जबकि आज भी कला समीक्षकों, कला दीर्घाओं आैर संपन्न वर्ग में हिन्दी क्षेत्र के कलाकारों के प्रति उपेक्षा है। कला में बाजार ही सब कुछ तय कर रहा है। मैंने मिथिला के लोगों में भी मिथिला चित्र खरीदने या अपनी मां-बहनों द्वारा बनाई कलाकृतियों को सहेजने की प्रवृति नहीं देखी। बिहार में आधुनिक कला का बाजार नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर अधिकतर दीर्घाएं सजावटी काम को ही खरीद रही हैं जबकि आज वीडियो आर्ट, इंस्टालेशन एवं परफार्मिंग आर्ट का ट्रेंड है। सौंदर्य से ज्यादा विचारों की प्रमुखता है।


आपने अपने चित्रों में प्रेम मूल विषय रखा, आपने प्रेम को कैसे चित्रित किया?

जब मैंने एक्रेलिक रंगों की बुद्ध सीरिज के बाद जलरंगों में पुन: काम शुरू किया तो प्रेम विषय को केंद्र में रखकर काम किया। प्रेम के सभी प्रतीकों को अपने चित्रों में जगह दी। दो हंसों के जोड़े, प्यार का मंदिर ताजमहल, प्यार में डूबे दिलों का संगीत में डूब जाना, ह्मदय की धड़कन, दिमाग में आते ख्याल, प्रेम दृश्यों से भरे खजुराहो के मूर्तिशिल्प, फिल्मी नायक-नायिका, शाहजहां-मुमताज जैसी कई आकृतियां हैं, जो मेरे चित्रों में प्रेम को दर्शाती हैं। भारत में अधिकतर लोग शादी के बाद प्रेम करते हैं आैर अपनी तुलना किसी फिल्मी नायक-नायिकाओं से करते हैं। राजकपूर-नर्गिस का प्रेम दृश्य इसका प्रतीक है। मोर के सौंदर्य को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। कहीं-कहीं मोर पुरुष चरित्र को दर्शाता है। ग्रामोफोन पर बजता संगीत एवं उसका आनंद लेता मोर, प्यार में डूबे युवक-युवती के संगीत प्रेम भी मेरे चित्रों में चित्रित हैं। कहते हैं कि आशिकी एवं मौशिकी दोनों के बीच अनन्य संबंध है एवं शरीर व मन पर प्यार का प्रभाव काफी होता है। इसलिए मैंने इन प्रेमों को भी कई तरह से दर्शाने की कोशिश की है। मैंने कुछ चित्रों में पुराने प्रेमी एवं आधुनिक प्रेमी, दोनों को एक साथ भी चित्रित किया है।


अपनी कलाकृतियों की चित्रभाषा के बारे में कुछ कहेंगे?

कला तभी समकालीन है जब उसमें विषय एवं तकनीक दोनों समकालीन हों। मैंने अपने चित्रों में आकृतियों को एक-दूसरे के ऊपर सुपर इम्पोज किया है। जलरंग के मूल चरित्र सहजता एवं उन्मुकतता का इस्तेमाल मैंने किया है, जिसमें बारीक रेखांकनों के साथ-साथ तीन आयामी प्रभाव भी हैं। पारदर्शी रंगों के कारण सब एक-दूसरे से जुड़ते हैं ताकि स्पेस में गहराई का अनुभव हो। पहाड़ी लघुचित्र कला, मिथिला चित्रों के रेखांकन, फिल्मों के पोस्टर आदि का कोलाज मेरे चित्रों में दिखता है। मैंने इन चित्रों में ज्यादा चटख रंगों का प्रयोग न कर, हल्के रंगों का प्रयोग किया है ताकि चित्रों में गंभीरता बनी रहे। मैंने काफी प्रयोग किया है एवं यह भी सच है कि हर कलाकार प्रयोग करना चाहता है।

रविन्द्र दास की कृति 


मिथिला चित्रों में एवं आधुनिक कला में क्या अंतर पाते हैं?

अगर मौलिक काम है तो दोनों अपनी-अपनी जगह श्रेष्ठ है। मगर, कुछ चित्रकारों के कामों को छोड़ दें तो अधिकतर मिथिला चित्र नकल है एवं सजावटी हैं। आधुनिक कला में तब तक आप कलाकार माने नहीं जाते जब कि आपकी कुछ निजी शैली न हो। कई आधुनिक कलाकार का काम हो सकता है कि आपको संुदर एवं सजावटी न लगे पर गंभीर रचनाओं का अपना महत्व है एवं उसके पारखी खरीददार अब बढ़ रहे हैं। जैसे व्यावसायिकता के दबाव में बनी फिल्म कालजयी नहीं होती, जैसे सिनेमा के दर्शक बदल रहे हैं एवं अच्छी फिल्में बन रही हैं, वैसे ही कला में भी अब सजावटी चित्रों का दौर खत्म हो रहा है। अब शोधपरक कलाकृतियां चर्चित हो रही हैं। पिछले दिनों आयोजित भारत कला मेला-2012 को देखकर ऐसा ही लगा। समकालीन एवं मिथिला कला, दोनों को उसमें जगह दी गई थी।


राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कलाकारों में किनका काम आपको अच्छा लगता है?

इतिहास की बात करें तो सबसे पहले मैं पिकासो का नाम लेना चाहूंगा। उसके बाद पॉल गोग्यों भी मेरे पसंदीदा कलाकारों में हैं। आज के कलाकारों में यू मिनजुन, डैमियन हस्र्ट, अतुल दोदिया एवं मिथु सेन का काम पसंद है। बिहार के कलाकारों में गोदावरी दत्त, अमरेश एवं राजेश राम की कलाकृतियां गहरे तौर पर प्रभावित करती हैं।

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

Subodh gupta


Not quite looking his 45 years, Subodh Gupta appeared more a warm and unassuming professor than the towering artist that he really is. His works are counted as priceless pieces of art, with their market value crossing 3.5 crores.


This year again he let his work do the talking - three immense structures of welded brass and steel utensils. The three faces poking their necks out from the ground were called ‘Warring monkeys’. Seeing is believing, so no amount of explanation can do justice to the strong impression the sculptures made on the onlooker. Painted a dull green, the three rugged faces depicted helmeted soldiers in masks, goggles and disguise.

Dressed in white, fully complementing that elegantly greying crop of hair, the colour reflected his calm and peaceful personality. Talking to Nabila Habib of Spicezee.com, Subodh Gupta threw some light on what guides the common man to appreciate or discredit an apparently indecipherable piece of art.

Q: What makes a piece of art popular?

Gupta: It is the quality that appeals to people. If the work of art is worthy and expresses a sentiment sincerely, it becomes valuable.

Q: A piece of art is a creative expression. Why does it then get involved in controversies, as mostly happens with popular art in India?

Gupta: Controversies are the creations of half-baked ideas by people who have failed to understand the art work. Lack of understanding makes people draw wrong conclusions from genuine art, thus creating uproar and controversy.

Q: What do you think causes this lack of understanding?

Gupta: It is the rare number of visits. If you don't familiarise yourself with art, you won't understand it. A certain effort has to be put into understanding any work and any form of expression.

Q: Does India lack such opportunities, like exhibitions and the like?

Gupta: India does not exactly lack opportunities. This (Art Summit) is a fine example.

Q: With the amount of controversies surrounding art, especially painting, in India, would you say India does not have proper institutions to impart knowledge about art, or opportunities to make people get in touch with the contemporary art?

Gupta: No, India does have sufficient opportunities of letting people be aware of art. In recent years the situation has even improved. The situation in certainly optimistic, but you can never be 'knowledgeable enough'.

Q: Why the great disparity between the cost of a work by a great and well known artist and the work of a lesser known artist?

Gupta: Good work sells everywhere. And good work is appreciated. It is not the name that sells and gets appreciated. A good work gets appreciated, and the more one contributes with better works, the better appreciation one receives. But time does play a part in honing one's skills, and artists become great only after proving themselves with their works consistently.